हम अपने रफ़्तगाँ को याद रखना चाहते हैं
दिलों को दर्द से आबाद रखना चाहते हैं
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अजब तरह का है मौसम कि ख़ाक उड़ती है
ज़िंदगी भर की कमाई यही मिसरे दो-चार
जैसा हूँ वैसा क्यूँ हूँ समझा सकता था मैं
और हवा चुप रही
खुला फ़रेब-ए-मोहब्बत दिखाई देता है
पस च-बायद-कर्द
अज़ाब-ए-वहशत-ए-जाँ का सिला न माँगे कोई
हमीं में रहते हैं वो लोग भी कि जिन के सबब
रोज़ इक ताज़ा क़सीदा नई तश्बीब के साथ
सर-ए-बाम-ए-हिज्र दिया बुझा तो ख़बर हुई
ज़माना हो गया ख़ुद से मुझे लड़ते-झगड़ते
सितारों से भरा ये आसमाँ कैसा लगेगा