हुआ है यूँ भी कि इक उम्र अपने घर न गए
ये जानते थे कोई राह देखता होगा
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ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है
मुल्क-ए-सुख़न में दर्द की दौलत को क्या हुआ
ग़ैरों से दाद-ए-जौर-ओ-जफ़ा ली गई तो क्या
दिल के माबूद जबीनों के ख़ुदाई से अलग
एक हम ही तो नहीं हैं जो उठाते हैं सवाल
गली-कूचों में हंगामा बपा करना पड़ेगा
बुलंद हाथों में ज़ंजीर डाल देते हैं
दुआ
एक ख़्वाब की दूरी पर
मिट्टी की मोहब्बत में हम आशुफ़्ता-सरों ने
ये बस्तियाँ हैं कि मक़्तल दुआ किए जाएँ
इल्तिजा