बुलंद हाथों में ज़ंजीर डाल देते हैं
अजीब रस्म चली है दुआ न माँगे कोई
Rahat Indori
Wasi Shah
Habib Jalib
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Gulzar
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Anwar Masood
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शगुफ़्ता लफ़्ज़ लिक्खे जा रहे हैं
फ़ज़ा में वहशत-ए-संग-ओ-सिनाँ के होते हुए
शहर-ए-गुल के ख़स-ओ-ख़ाशाक से ख़ौफ़ आता है
मआल-ए-इज़्ज़त-ए-सादात-ए-इश्क़ देख के हम
ज़रा सी देर को आए थे ख़्वाब आँखों में
शिकस्ता-पर जुनूँ को आज़माएँगे नहीं क्या
ये नक़्श हम जो सर-ए-लौह-ए-जाँ बनाते हैं
ये अब खुला कि कोई भी मंज़र मिरा न था
कूच
वो जिस के नाम की निस्बत से रौशनी था वजूद
हम अहल-ए-जब्र के नाम-ओ-नसब से वाक़िफ़ हैं
मैं जिस को अपनी गवाही में ले के आया हूँ