वो जिस के नाम की निस्बत से रौशनी था वजूद
खटक रहा है वही आफ़्ताब आँखों में
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मिरा ख़ुश-ख़िराम बला का तेज़-ख़िराम था
मैं ज़िंदगी की दुआ माँगने लगा हूँ बहुत
अब भी तौहीन-ए-इताअत नहीं होगी हम से
मिरा ज़ेहन मुझ को रहा करे
दिल के माबूद जबीनों के ख़ुदाई से अलग
मैं जिस को एक उम्र सँभाले फिरा किया
शिकस्ता-पर जुनूँ को आज़माएँगे नहीं क्या
मैं चुप रहा कि वज़ाहत से बात बढ़ जाती
ये बस्ती जानी-पहचानी बहुत है
मुंहदिम होता चला जाता है दिल साल-ब-साल
ख़ल्क़ ने इक मंज़र नहीं देखा बहुत दिनों से
सब चेहरों पर एक ही रंग और सब आँखों में एक ही ख़्वाब