वो हम नहीं थे तो फिर कौन था सर-ए-बाज़ार
जो कह रहा था कि बिकना हमें गवारा नहीं
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जुनूँ का रंग भी हो शोला-ए-नुमू का भी हो
आख़िरी आदमी का रजज़
सिपाह-ए-शाम के नेज़े पे आफ़्ताब का सर
ग़ैरों से दाद-ए-जौर-ओ-जफ़ा ली गई तो क्या
शगुफ़्ता लफ़्ज़ लिक्खे जा रहे हैं
थकन तो अगले सफ़र के लिए बहाना था
अब भी तौहीन-ए-इताअत नहीं होगी हम से
हम अपने रफ़्तगाँ को याद रखना चाहते हैं
दुआ को हात उठाते हुए लरज़ता हूँ
शहर इल्म के दरवाज़े पर
एक उदास शाम के नाम
मैं चुप रहा कि वज़ाहत से बात बढ़ जाती