दुआ को हात उठाते हुए लरज़ता हूँ
कभी दुआ नहीं माँगी थी माँ के होते हुए
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ज़रा सी देर को आए थे ख़्वाब आँखों में
रिंद मस्जिद में गए तो उँगलियाँ उठने लगीं
इन्हीं में जीते इन्हीं बस्तियों में मर रहते
पयम्बरों से ज़मीनें वफ़ा नहीं करतीं
ये बस्तियाँ हैं कि मक़्तल दुआ किए जाएँ
बदन-दरीदा रूहों के नाम एक नज़्म
तार-ए-शबनम की तरह सूरत-ए-ख़स टूटती है
मंसब न कुलाह चाहता हूँ
इंतिबाह
सितारों से भरा ये आसमाँ कैसा लगेगा
कोई जुनूँ कोई सौदा न सर में रक्खा जाए
ख़्वाब-ए-देरीना से रुख़्सत का सबब पूछते हैं