मैं चुप रहा कि वज़ाहत से बात बढ़ जाती
हज़ार शेवा-ए-हुस्न-ए-बयाँ के होते हुए
Jaun Eliya
Parveen Shakir
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
Rahat Indori
Wasi Shah
Javed Akhtar
Gulzar
Allama Iqbal
Ahmad Faraz
Anwar Masood
Habib Jalib
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(1287) Peoples Rate This
ये अब खुला कि कोई भी मंज़र मिरा न था
हरीम-ए-लफ़्ज़ में किस दर्जा बे-अदब निकला
अजीब ही था मिरे दौर-ए-गुमरही का रफ़ीक़
मुंहदिम होता चला जाता है दिल साल-ब-साल
एक उदास शाम के नाम
ज़माना हो गया ख़ुद से मुझे लड़ते-झगड़ते
सौग़ात
वही चराग़ बुझा जिस की लौ क़यामत थी
एक रुख़
डूब जाऊँ तो कोई मौज निशाँ तक न बताए
शिकस्ता-पर जुनूँ को आज़माएँगे नहीं क्या
कूच