सिपाह-ए-शाम के नेज़े पे आफ़्ताब का सर
किस एहतिमाम से परवर-दिगार-ए-शब निकला
Javed Akhtar
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Jaun Eliya
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Mir Taqi Mir
Habib Jalib
Faiz Ahmad Faiz
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वही चराग़ बुझा जिस की लौ क़यामत थी
यक़ीन से यादों के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता
आख़िरी आदमी का रजज़
मआल-ए-इज़्ज़त-ए-सादात-ए-इश्क़ देख के हम
शगुफ़्ता लफ़्ज़ लिक्खे जा रहे हैं
कोई जुनूँ कोई सौदा न सर में रक्खा जाए
अब भी तौहीन-ए-इताअत नहीं होगी हम से
कहानी में नए किरदार शामिल हो गए हैं
दुआएँ याद करा दी गई थीं बचपन में
सजल कि शोर ज़मीनों में आशियाना करे
हर नई नस्ल को इक ताज़ा मदीने की तलाश
ज़माना हो गया ख़ुद से मुझे लड़ते-झगड़ते