मआल-ए-इज़्ज़त-ए-सादात-ए-इश्क़ देख के हम
बदल गए तो बदलने पे इतनी हैरत क्या
Mohsin Naqvi
Ahmad Faraz
Wasi Shah
Rahat Indori
Faiz Ahmad Faiz
Gulzar
Mir Taqi Mir
Jaun Eliya
Habib Jalib
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इस बार भी दुनिया ने हदफ़ हम को बनाया
ये बस्ती जानी पहचानी बहुत है
तार-ए-शबनम की तरह सूरत-ए-ख़स टूटती है
हमीं में रहते हैं वो लोग भी कि जिन के सबब
अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया
एक चराग़ और एक किताब और एक उम्मीद असासा
बहुत मुश्किल ज़मानों में भी हम अहल-ए-मोहब्बत
उमीद-ओ-बीम के मेहवर से हट के देखते हैं
शिकस्ता-पर जुनूँ को आज़माएँगे नहीं क्या
रविश में गर्दिश-ए-सय्यारगाँ से अच्छी है
बिखर जाएँगे हम क्या जब तमाशा ख़त्म होगा