इस बार भी दुनिया ने हदफ़ हम को बनाया
इस बार तो हम शह के मुसाहिब भी नहीं थे
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मिरे सारे हर्फ़ तमाम हर्फ़ अज़ाब थे
वफ़ा के बाब में कार-ए-सुख़न तमाम हुआ
हमीं में रहते हैं वो लोग भी कि जिन के सबब
रविश में गर्दिश-ए-सय्यारगाँ से अच्छी है
खज़ाना-ए-ज़र-ओ-गौहर पे ख़ाक डाल के रख
सब चेहरों पर एक ही रंग और सब आँखों में एक ही ख़्वाब
घर से निकले हुए बेटों का मुक़द्दर मालूम
एक सवाल
मैं जिस को अपनी गवाही में ले के आया हूँ
दुख और तरह के हैं दुआ और तरह की
बस्ती भी समुंदर भी बयाबाँ भी मिरा है
एक उदास शाम के नाम