हम भी इक शाम बहुत उलझे हुए थे ख़ुद में
एक शाम उस को भी हालात ने मोहलत नहीं दी
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जैसा हूँ वैसा क्यूँ हूँ समझा सकता था मैं
ये क़र्ज़-ए-कज-कुलही कब तलक अदा होगा
उमीद-ओ-बीम के मेहवर से हट के देखते हैं
दुआ को हात उठाते हुए लरज़ता हूँ
दयार-ए-नूर में तीरा-शबों का साथी हो
अबू-तालिब के बेटे
एक था राजा छोटा सा
हमें भी आफ़ियत-ए-जाँ का है ख़याल बहुत
सहरा में एक शाम
दोस्त क्या ख़ुद को भी पुर्सिश की इजाज़त नहीं दी
मुल्क-ए-सुख़न में दर्द की दौलत को क्या हुआ
ग़म-ए-जहाँ को शर्मसार करने वाले क्या हुए