हमें भी आफ़ियत-ए-जाँ का है ख़याल बहुत
हमें भी हल्क़ा-ए-ना-मोतबर में रक्खा जाए
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वही फ़िराक़ की बातें वही हिकायत-ए-वस्ल
जो डूबती जाती है वो कश्ती भी है मेरी
सिपाह-ए-शाम के नेज़े पे आफ़्ताब का सर
इक ख़्वाब ही तो था जो फ़रामोश हो गया
ये सारी जन्नतें ये जहन्नम अज़ाब ओ अज्र
दुआ को हात उठाते हुए लरज़ता हूँ
घर से निकले हुए बेटों का मुक़द्दर मालूम
बस्ती भी समुंदर भी बयाबाँ भी मिरा है
समुंदर इस क़दर शोरीदा-सर क्यूँ लग रहा है
ये वक़्त किस की रऊनत पे ख़ाक डाल गया
हिज्र की धूप में छाँव जैसी बातें करते हैं
मंसब न कुलाह चाहता हूँ