वही फ़िराक़ की बातें वही हिकायत-ए-वस्ल
नई किताब का एक इक वरक़ पुराना था
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मेरा मालिक जब तौफ़ीक़ अर्ज़ानी करता है
हुआ है यूँ भी कि इक उम्र अपने घर न गए
बहुत मुश्किल ज़मानों में भी हम अहल-ए-मोहब्बत
सुब्ह सवेरे रन पड़ना है और घमसान का रन
अब भी तौहीन-ए-इताअत नहीं होगी हम से
मैं चुप रहा कि वज़ाहत से बात बढ़ जाती
हिज्र की धूप में छाँव जैसी बातें करते हैं
ये अब खुला कि कोई भी मंज़र मिरा न था
उमीद-ओ-बीम के मेहवर से हट के देखते हैं
हमें भी आफ़ियत-ए-जाँ का है ख़याल बहुत
ये बस्ती जानी-पहचानी बहुत है
ये वक़्त किस की रऊनत पे ख़ाक डाल गया