सुब्ह सवेरे रन पड़ना है और घमसान का रन
रातों रात चला जाए जिस को जाना है
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मुकालिमा
मंज़र से हैं न दीदा-ए-बीना के दम से हैं
बारहवाँ खिलाड़ी
सिपाह-ए-शाम के नेज़े पे आफ़्ताब का सर
ख़ाक में दौलत-ए-पिंदार-ओ-अना मिलती है
वफ़ा की ख़ैर मनाता हूँ बेवफ़ाई में भी
दुआ को हात उठाते हुए लरज़ता हूँ
हामी भी न थे मुंकिर-ए-'ग़ालिब' भी नहीं थे
रिंद मस्जिद में गए तो उँगलियाँ उठने लगीं
ख़ौफ़ के सैल-ए-मुसलसल से निकाले मुझे कोई
क़िस्सा एक बसंत का
कूच