तमाम ख़ाना-ब-दोशों में मुश्तरक है ये बात
सब अपने अपने घरों को पलट के देखते हैं
Parveen Shakir
Allama Iqbal
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Javed Akhtar
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Mir Taqi Mir
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अजीब ही था मिरे दौर-ए-गुमरही का रफ़ीक़
ये रौशनी के तआक़ुब में भागता हुआ दिन
सिपाह-ए-शाम के नेज़े पे आफ़्ताब का सर
ये मो'जिज़ा भी किसी की दुआ का लगता है
सर-ए-बाम-ए-हिज्र दिया बुझा तो ख़बर हुई
ख़ुद को बिखरते देखते हैं कुछ कर नहीं पाते हैं
सितारों से भरा ये आसमाँ कैसा लगेगा
करें तो किस से करें ना-रसाइयों का गिला
जो डूबती जाती है वो कश्ती भी है मेरी
गली-कूचों में हंगामा बपा करना पड़ेगा
तार-ए-शबनम की तरह सूरत-ए-ख़स टूटती है
समुंदर के किनारे एक बस्ती रो रही है