मैं जिस को एक उम्र सँभाले फिरा किया
मिट्टी बता रही है वो पैकर मिरा न था
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मिट्टी की गवाही से बड़ी दिल की गवाही
दोस्त क्या ख़ुद को भी पुर्सिश की इजाज़त नहीं दी
दयार-ए-नूर में तीरा-शबों का साथी हो
वही फ़िराक़ की बातें वही हिकायत-ए-वस्ल
एक कहानी बहुत पुरानी
यही लौ थी कि उलझती रही हर रात के साथ
अब भी तौहीन-ए-इताअत नहीं होगी हम से
घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ
बुलंद हाथों में ज़ंजीर डाल देते हैं
कुछ देर पहले नींद से
हर नई नस्ल को इक ताज़ा मदीने की तलाश