मैं उस से झूट भी बोलूँ तो मुझ से सच बोले
मिरे मिज़ाज के सब मौसमों का साथी हो
Faiz Ahmad Faiz
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दोस्त क्या ख़ुद को भी पुर्सिश की इजाज़त नहीं दी
रिंद मस्जिद में गए तो उँगलियाँ उठने लगीं
तजाहुल-ए-आरिफ़ाना
ये बस्ती जानी-पहचानी बहुत है
मुकालिमा
ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है
समझ रहे हैं मगर बोलने का यारा नहीं
हम अपने रफ़्तगाँ को याद रखना चाहते हैं
खज़ाना-ए-ज़र-ओ-गौहर पे ख़ाक डाल के रख
बिखर जाएँगे हम क्या जब तमाशा ख़त्म होगा
रोज़ इक ताज़ा क़सीदा नई तश्बीब के साथ
क़िस्सा एक बसंत का