रोज़ इक ताज़ा क़सीदा नई तश्बीब के साथ
रिज़्क़ बर-हक़ है ये ख़िदमत नहीं होगी हम से
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ख़्वाब-ए-देरीना से रुख़्सत का सबब पूछते हैं
समझ रहे हैं मगर बोलने का यारा नहीं
वफ़ा की ख़ैर मनाता हूँ बेवफ़ाई में भी
दुआएँ याद करा दी गई थीं बचपन में
अब भी तौहीन-ए-इताअत नहीं होगी हम से
सितारा-वार जले फिर बुझा दिए गए हम
कहाँ के नाम ओ नसब इल्म क्या फ़ज़ीलत क्या
मैं उस से झूट भी बोलूँ तो मुझ से सच बोले
एक उदास शाम के नाम
ये बस्ती जानी-पहचानी बहुत है
मैं जिस को एक उम्र सँभाले फिरा किया
यही लहजा था कि मेआर-ए-सुख़न ठहरा था