सब लोग अपने अपने क़बीलों के साथ थे
इक मैं ही था कि कोई भी लश्कर मिरा न था
Mohsin Naqvi
Ahmad Faraz
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
Jaun Eliya
Gulzar
Allama Iqbal
Anwar Masood
Rahat Indori
Parveen Shakir
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दयार-ए-नूर में तीरा-शबों का साथी हो
हमें तो अपने समुंदर की रेत काफ़ी है
ख़्वाब देखने वाली आँखें पत्थर होंगी तब सोचेंगे
खज़ाना-ए-ज़र-ओ-गौहर पे ख़ाक डाल के रख
कहीं से कोई हर्फ़-ए-मो'तबर शायद न आए
ये बस्तियाँ हैं कि मक़्तल दुआ किए जाएँ
मंसब न कुलाह चाहता हूँ
हम भी इक शाम बहुत उलझे हुए थे ख़ुद में
दुआ को हात उठाते हुए लरज़ता हूँ
बेटियाँ बाप की आँखों में छुपे ख़्वाब को पहचानती हैं
अब भी तौहीन-ए-इताअत नहीं होगी हम से
मआल-ए-इज़्ज़त-ए-सादात-ए-इश्क़ देख के हम