यही लहजा था कि मेआर-ए-सुख़न ठहरा था
अब इसी लहजा-ए-बे-बाक से ख़ौफ़ आता है
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दिल पागल है रोज़ नई नादानी करता है
सहरा में एक शाम
जवाब आए न आए सवाल उठा तो सही
बस एक ख़्वाब की सूरत कहीं है घर मेरा
समुंदर के किनारे एक बस्ती रो रही है
ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है
शिकस्ता-पर जुनूँ को आज़माएँगे नहीं क्या
मंज़र से हैं न दीदा-ए-बीना के दम से हैं
सुब्ह सवेरे रन पड़ना है और घमसान का रन
कारोबार में अब के ख़सारा और तरह का है
जुनूँ का रंग भी हो शोला-ए-नुमू का भी हो
ये वक़्त किस की रऊनत पे ख़ाक डाल गया