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अबू-तालिब के बेटे
इस बार भी दुनिया ने हदफ़ हम को बनाया
कोई जुनूँ कोई सौदा न सर में रक्खा जाए
शगुफ़्ता लफ़्ज़ लिक्खे जा रहे हैं
उसी को बात न पहुँचे जिसे पहुँचनी हो
ग़म-ए-जहाँ को शर्मसार करने वाले क्या हुए
कोई मुज़्दा न बशारत न दुआ चाहती है
हमें तो अपने समुंदर की रेत काफ़ी है
हिज्र की धूप में छाँव जैसी बातें करते हैं
मुल्क-ए-सुख़न में दर्द की दौलत को क्या हुआ
हम अहल-ए-जब्र के नाम-ओ-नसब से वाक़िफ़ हैं
मुकालिमा