घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ
शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है
Mir Taqi Mir
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Habib Jalib
Rahat Indori
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हामी भी न थे मुंकिर-ए-'ग़ालिब' भी नहीं थे
शिकस्त
मैं जिस को अपनी गवाही में ले के आया हूँ
और हवा चुप रही
वही प्यास है वही दश्त है वही घराना है
शहर-आशोब
हिज्र की धूप में छाँव जैसी बातें करते हैं
मआल-ए-इज़्ज़त-ए-सादात-ए-इश्क़ देख के हम
एक रुख़
सितारों से भरा ये आसमाँ कैसा लगेगा
हमीं में रहते हैं वो लोग भी कि जिन के सबब
ये सारी जन्नतें ये जहन्नम अज़ाब ओ अज्र