दर-ओ-दीवार इतने अजनबी क्यूँ लग रहे हैं
ख़ुद अपने घर में आख़िर इतना डर क्यूँ लग रहा है
Wasi Shah
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कूच
हामी भी न थे मुंकिर-ए-'ग़ालिब' भी नहीं थे
ये नक़्श हम जो सर-ए-लौह-ए-जाँ बनाते हैं
थकन तो अगले सफ़र के लिए बहाना था
मंसब न कुलाह चाहता हूँ
ख़ौफ़ के सैल-ए-मुसलसल से निकाले मुझे कोई
जवाब आए न आए सवाल उठा तो सही
बद-शुगूनी
डूब जाऊँ तो कोई मौज निशाँ तक न बताए
शिकस्त
ख़ाक में दौलत-ए-पिंदार-ओ-अना मिलती है
रौशन दिल वालों के नाम