एक हम ही तो नहीं हैं जो उठाते हैं सवाल
जितने हैं ख़ाक-बसर शहर के सब पूछते हैं
Mohsin Naqvi
Gulzar
Jaun Eliya
Wasi Shah
Allama Iqbal
Habib Jalib
Anwar Masood
Rahat Indori
Ahmad Faraz
Parveen Shakir
Faiz Ahmad Faiz
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रोज़ इक ताज़ा क़सीदा नई तश्बीब के साथ
ये तेरे मेरे चराग़ों की ज़िद जहाँ से चली
दयार-ए-नूर में तीरा-शबों का साथी हो
ये बस्ती जानी पहचानी बहुत है
तार-ए-शबनम की तरह सूरत-ए-ख़स टूटती है
कहाँ के नाम ओ नसब इल्म क्या फ़ज़ीलत क्या
दोस्त क्या ख़ुद को भी पुर्सिश की इजाज़त नहीं दी
ये बस्ती जानी-पहचानी बहुत है
जो हर्फ़-ए-हक़ की हिमायत में हो वो गुम-नामी
हम अहल-ए-जब्र के नाम-ओ-नसब से वाक़िफ़ हैं
वो क्या मंज़िल जहाँ से रास्ते आगे निकल जाएँ
जब 'मीर' ओ 'मीरज़ा' के सुख़न राएगाँ गए