अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया
कि एक उम्र चले और घर नहीं आया
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वो हम नहीं थे तो फिर कौन था सर-ए-बाज़ार
ख़ल्क़ ने इक मंज़र नहीं देखा बहुत दिनों से
मोहब्बत की एक नज़्म
सिपाह-ए-शाम के नेज़े पे आफ़्ताब का सर
कुछ भी नहीं कहीं नहीं ख़्वाब के इख़्तियार में
समझ रहे हैं मगर बोलने का यारा नहीं
ये बस्ती जानी पहचानी बहुत है
हुआ है यूँ भी कि इक उम्र अपने घर न गए
हमें भी आफ़ियत-ए-जाँ का है ख़याल बहुत
अजीब ही था मिरे दौर-ए-गुमरही का रफ़ीक़
रविश में गर्दिश-ए-सय्यारगाँ से अच्छी है
पस च-बायद-कर्द