अज़ाब-ए-वहशत-ए-जाँ का सिला न माँगे कोई
नए सफ़र के लिए रास्ता न माँगे कोई
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पुराने दुश्मन
कोई जुनूँ कोई सौदा न सर में रक्खा जाए
दिल उन के साथ मगर तेग़ और शख़्स के साथ
यही लहजा था कि मेआर-ए-सुख़न ठहरा था
हमीं में रहते हैं वो लोग भी कि जिन के सबब
शहर इल्म के दरवाज़े पर
मुकालिमा
खज़ाना-ए-ज़र-ओ-गौहर पे ख़ाक डाल के रख
एलान नामा
वो हम नहीं थे तो फिर कौन था सर-ए-बाज़ार
सब लोग अपने अपने क़बीलों के साथ थे