बे-नियाज़ाना गुज़र जाए गुज़रने वाला
मेरे पिंदार को अब शौक़-ए-तमाशा भी नहीं
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हाथ फैलाऊँ मैं ईसा-नफ़सों के आगे
हम बहुत दूर निकल आए हैं चलते चलते
रौशनी मुझ से गुरेज़ाँ है तो शिकवा भी नहीं
अपना घर छोड़ के हम लोग वहाँ तक पहुँचे
जिस अंजुमन में देखो बेगाने रह गए हैं
ज़हर के घूँट भी हँस हँस के पिए जाते हैं
जुनूँ को होश कहाँ एहतिमाम-ए-ग़ारत का
ऐ अहल-ए-वफ़ा दाद-ए-जफ़ा क्यूँ नहीं देते
बिल-एहतिमाम ज़ुल्म की तज्दीद की गई
ज़ब्त भी चाहिए ज़र्फ़ भी चाहिए और मोहतात पास-ए-वफ़ा चाहिए
झुक कर सलाम करने में क्या हर्ज है मगर
मिरे जुर्म-ए-वफ़ा का फ़ैसला कुछ इस तरह होगा