बारहा उन से न मिलने की क़सम खाता हूँ मैं
और फिर ये बात क़स्दन भूल भी जाता हूँ मैं
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अपनी मिट्टी ही पे चलने का सलीक़ा सीखो
अब हम भी सोचते हैं कि बाज़ार गर्म है
इस जश्न-ए-चराग़ाँ से तो बेहतर थे अँधेरे
सफ़र पे निकले हैं हम पूरे एहतिमाम के साथ
झुक कर सलाम करने में क्या हर्ज है मगर
आँखों से नूर दिल से ख़ुशी छीन ली गई
कुछ ऐसे ज़ख़्म भी दर-पर्दा हम ने खाए हैं
ज़हर के घूँट भी हँस हँस के पिए जाते हैं
अब इसे क्या करे कोई आँखों में रौशनी नहीं
रौशनी मुझ से गुरेज़ाँ है तो शिकवा भी नहीं
अपना घर छोड़ के हम लोग वहाँ तक पहुँचे
अल्लाह रे यादों की ये अंजुमन-आराई