झुक कर सलाम करने में क्या हर्ज है मगर
सर इतना मत झुकाओ कि दस्तार गिर पड़े
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मिरे जुर्म-ए-वफ़ा का फ़ैसला कुछ इस तरह होगा
पुर्सिश-ए-हाल की फ़ुर्सत तुम्हें मुमकिन है न हो
अपनी मिट्टी ही पे चलने का सलीक़ा सीखो
क़ातिल ने किस सफ़ाई से धोई है आस्तीं
यूँ सर-ए-राह मुलाक़ात हुई है अक्सर
इस जश्न-ए-चराग़ाँ से तो बेहतर थे अँधेरे
हाथ फैलाऊँ मैं ईसा-नफ़सों के आगे
कुछ ऐसे ज़ख़्म भी दर-पर्दा हम ने खाए हैं
रौशनी मुझ से गुरेज़ाँ है तो शिकवा भी नहीं
अल्लाह रे यादों की ये अंजुमन-आराई
जिस में न कोई रंग न आहंग न ख़ुशबू
आँखों से नूर दिल से ख़ुशी छीन ली गई