इस जश्न-ए-चराग़ाँ से तो बेहतर थे अँधेरे
इन झूटे चराग़ों को बुझा क्यूँ नहीं देते
Parveen Shakir
Allama Iqbal
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नक़्श माज़ी के जो बाक़ी हैं मिटा मत देना
अल्लाह रे यादों की ये अंजुमन-आराई
वो यूँ मिला कि ब-ज़ाहिर ख़फ़ा ख़फ़ा सा लगा
ज़हर के घूँट भी हँस हँस के पिए जाते हैं
जिस अंजुमन में देखो बेगाने रह गए हैं
बस हो चुका हुज़ूर ये पर्दे हटाइए
यूँ सर-ए-राह मुलाक़ात हुई है अक्सर
क़ातिल ने किस सफ़ाई से धोई है आस्तीं
हर-चंद गाम गाम हवादिस सफ़र में हैं
मिरे जुर्म-ए-वफ़ा का फ़ैसला कुछ इस तरह होगा
सफ़र पे निकले हैं हम पूरे एहतिमाम के साथ
जुनूँ को होश कहाँ एहतिमाम-ए-ग़ारत का