क़ातिल ने किस सफ़ाई से धोई है आस्तीं
उस को ख़बर नहीं कि लहू बोलता भी है
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नक़्श माज़ी के जो बाक़ी हैं मिटा मत देना
ज़हर के घूँट भी हँस हँस के पिए जाते हैं
अब हम भी सोचते हैं कि बाज़ार गर्म है
बस हो चुका हुज़ूर ये पर्दे हटाइए
अल्लाह रे यादों की ये अंजुमन-आराई
अपना घर छोड़ के हम लोग वहाँ तक पहुँचे
ये निगाह-ए-शर्म झुकी झुकी ये जबीन-ए-नाज़ धुआँ धुआँ
जिस अंजुमन में देखो बेगाने रह गए हैं
इस जश्न-ए-चराग़ाँ से तो बेहतर थे अँधेरे
यूँ सर-ए-राह मुलाक़ात हुई है अक्सर
ज़माना देखा है हम ने हमारी क़द्र करो
जिस में न कोई रंग न आहंग न ख़ुशबू