ज़माना देखा है हम ने हमारी क़द्र करो
हम अपनी आँखों में दुनिया बसाए बैठे हैं
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जुनूँ को होश कहाँ एहतिमाम-ए-ग़ारत का
क़ातिल ने किस सफ़ाई से धोई है आस्तीं
बारहा उन से न मिलने की क़सम खाता हूँ मैं
यूँ सर-ए-राह मुलाक़ात हुई है अक्सर
आँखों से नूर दिल से ख़ुशी छीन ली गई
हाथ फैलाऊँ मैं ईसा-नफ़सों के आगे
अपनी मिट्टी ही पे चलने का सलीक़ा सीखो
ऐ अहल-ए-वफ़ा दाद-ए-जफ़ा क्यूँ नहीं देते
मिरे जुर्म-ए-वफ़ा का फ़ैसला कुछ इस तरह होगा
अल्लाह रे यादों की ये अंजुमन-आराई
ज़हर के घूँट भी हँस हँस के पिए जाते हैं
इस जश्न-ए-चराग़ाँ से तो बेहतर थे अँधेरे