अपनी मिट्टी ही पे चलने का सलीक़ा सीखो
संग-ए-मरमर पे चलोगे तो फिसल जाओगे
Habib Jalib
Mir Taqi Mir
Rahat Indori
Wasi Shah
Mohsin Naqvi
Jaun Eliya
Parveen Shakir
Anwar Masood
Gulzar
Javed Akhtar
Ahmad Faraz
Allama Iqbal
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(6042) Peoples Rate This
झुक कर सलाम करने में क्या हर्ज है मगर
माना कि ज़िंदगी से हमें कुछ मिला भी है
जुनूँ को होश कहाँ एहतिमाम-ए-ग़ारत का
जब घर की आग बुझी तो कुछ सामान बचा था जलने से
आँखों से नूर दिल से ख़ुशी छीन ली गई
बे-नियाज़ाना गुज़र जाए गुज़रने वाला
ये निगाह-ए-शर्म झुकी झुकी ये जबीन-ए-नाज़ धुआँ धुआँ
बारहा उन से न मिलने की क़सम खाता हूँ मैं
जिस में न कोई रंग न आहंग न ख़ुशबू
अब हम भी सोचते हैं कि बाज़ार गर्म है
सब समझते हैं कि हम किस कारवाँ के लोग हैं
कुछ ऐसे ज़ख़्म भी दर-पर्दा हम ने खाए हैं