जिस में न कोई रंग न आहंग न ख़ुशबू
तुम ऐसे गुलिस्ताँ को जला क्यूँ नहीं देते
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हम बहुत दूर निकल आए हैं चलते चलते
अपनी मिट्टी ही पे चलने का सलीक़ा सीखो
नक़्श माज़ी के जो बाक़ी हैं मिटा मत देना
मुझे अपने ज़ब्त पे नाज़ था सर-ए-बज़्म रात ये क्या हुआ
यूँ सर-ए-राह मुलाक़ात हुई है अक्सर
झुक कर सलाम करने में क्या हर्ज है मगर
ऐ अहल-ए-वफ़ा दाद-ए-जफ़ा क्यूँ नहीं देते
ज़ब्त भी चाहिए ज़र्फ़ भी चाहिए और मोहतात पास-ए-वफ़ा चाहिए
अब हम भी सोचते हैं कि बाज़ार गर्म है
पुर्सिश-ए-हाल की फ़ुर्सत तुम्हें मुमकिन है न हो
हर-चंद गाम गाम हवादिस सफ़र में हैं
ये निगाह-ए-शर्म झुकी झुकी ये जबीन-ए-नाज़ धुआँ धुआँ