यूँ सर-ए-राह मुलाक़ात हुई है अक्सर
उस ने देखा भी नहीं हम ने पुकारा भी नहीं
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ऐ अहल-ए-वफ़ा दाद-ए-जफ़ा क्यूँ नहीं देते
हम बहुत दूर निकल आए हैं चलते चलते
ज़माना देखा है हम ने हमारी क़द्र करो
नक़्श माज़ी के जो बाक़ी हैं मिटा मत देना
ये निगाह-ए-शर्म झुकी झुकी ये जबीन-ए-नाज़ धुआँ धुआँ
हाथ फैलाऊँ मैं ईसा-नफ़सों के आगे
पुर्सिश-ए-हाल की फ़ुर्सत तुम्हें मुमकिन है न हो
झुक कर सलाम करने में क्या हर्ज है मगर
बे-नियाज़ाना गुज़र जाए गुज़रने वाला
सब समझते हैं कि हम किस कारवाँ के लोग हैं
अपनी मिट्टी ही पे चलने का सलीक़ा सीखो