मिरे जुर्म-ए-वफ़ा का फ़ैसला कुछ इस तरह होगा
सज़ा का हुक्म फ़ौरी और समाअत सरसरी होगी
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अब हम भी सोचते हैं कि बाज़ार गर्म है
इस जश्न-ए-चराग़ाँ से तो बेहतर थे अँधेरे
हाथ फैलाऊँ मैं ईसा-नफ़सों के आगे
हम बहुत दूर निकल आए हैं चलते चलते
आदमी जान के खाता है मोहब्बत में फ़रेब
सब समझते हैं कि हम किस कारवाँ के लोग हैं
ऐ अहल-ए-वफ़ा दाद-ए-जफ़ा क्यूँ नहीं देते
बारहा उन से न मिलने की क़सम खाता हूँ मैं
नक़्श माज़ी के जो बाक़ी हैं मिटा मत देना
अपना घर छोड़ के हम लोग वहाँ तक पहुँचे
ज़माना देखा है हम ने हमारी क़द्र करो