आदमी जान के खाता है मोहब्बत में फ़रेब
ख़ुद-फ़रेबी ही मोहब्बत का सिला हो जैसे
Faiz Ahmad Faiz
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अपने मरकज़ से अगर दूर निकल जाओगे
कुछ ऐसे ज़ख़्म भी दर-पर्दा हम ने खाए हैं
अल्लाह रे यादों की ये अंजुमन-आराई
ज़हर के घूँट भी हँस हँस के पिए जाते हैं
हम बहुत दूर निकल आए हैं चलते चलते
जिस में न कोई रंग न आहंग न ख़ुशबू
सब समझते हैं कि हम किस कारवाँ के लोग हैं
हाथ फैलाऊँ मैं ईसा-नफ़सों के आगे
अब हम भी सोचते हैं कि बाज़ार गर्म है
तुम ग़ैरों से हँस हँस के मुलाक़ात करो हो
ऐ अहल-ए-वफ़ा दाद-ए-जफ़ा क्यूँ नहीं देते