पढ़ते पढ़ते थक गए सब लोग तहरीरें मिरी
लिखते लिखते शहर की दीवार काली हो गई
Gulzar
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होते ही शाम जलने लगा याद का अलाव
उस आइने में देखना हैरत भी आएगी
साए की तरह बढ़ न कभी क़द से ज़ियादा
कटते ही संग-ए-लफ़्ज़ गिरानी निकल पड़े
मूँद कर आँखें तलाश-ए-बहर-ओ-बर करने लगे
इक तबीअत थी सो वो भी ला-उबाली हो गई
फ़िक्र-ए-मेआर-ए-सुख़न बाइस-ए-आज़ार हुई
अपनी अना की आज भी तस्कीन हम ने की
ग़ार से संग हटाया तो वो ख़ाली निकला
लगा दी काग़ज़ी मल्बूस पर मोहर-ए-सबात अपनी
ऐसे घर में रह रहा हूँ देख ले बे-शक कोई
ख़ुदा ने जिस को चाहा उस ने बच्चे की तरह ज़िद की