आशोब-ए-इज़्तिराब में खटका जो है तो ये
ग़म तेरा मिल न जाए ग़म-ए-रोज़गार में
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सदा फ़रियाद की आए कहीं से
उफ़ क्या मज़ा मिला सितम-ए-रोज़गार में
ज़बानों पर नहीं अब तूर का फ़साना बरसों से
ये इत्र बे-ज़ियाँ नहीं नसीम-ए-नौ-बहार की
ज़िंदाँ-नसीब हूँ मिरे क़ाबू में सर नहीं
कहाँ ताक़त ये रूसी को कहाँ हिम्मत ये जर्मन को
अंजाम-ए-वफ़ा भी देख लिया अब किस लिए सर ख़म होता है
हुस्न-ए-फ़ितरत की आबरू मुझ से
कुछ ऐसा है फ़रेब-ए-नर्गिस-ए-मस्ताना बरसों से
न रहा ज़ौक़-ए-रंग-ओ-बू मुझ को