हुस्न-ए-फ़ितरत की आबरू मुझ से
आब ओ गिल में है रंग-ओ-बू मुझ से
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ज़िंदाँ-नसीब हूँ मिरे क़ाबू में सर नहीं
अब दिल को हम ने बंदा-ए-जानाँ बना दिया
न रहा कोई तार दामन में
ये इत्र बे-ज़ियाँ नहीं नसीम-ए-नौ-बहार की
आशोब-ए-इज़्तिराब में खटका जो है तो ये
असीरों में भी हो जाएँ जो कुछ आशुफ़्ता-सर पैदा
पैग़ाम-ए-रिहाई दिया हर चंद क़ज़ा ने
वो शबनम का सुकूँ हो या कि परवाने की बेताबी
अंजाम-ए-वफ़ा भी देख लिया अब किस लिए सर ख़म होता है
सदा फ़रियाद की आए कहीं से