वाहिद मुतकल्लिम का हो जो मुंकिर
बंदा हूँ तो इक ख़ुदा बनाऊँ अपना
या-रब कोई नक़्श-ए-मुद्दआ भी न रहे
पुर-शोर उल्फ़त की निदा है अब भी
किस तौर से किस तरह से क्यूँ कर पाया
करता हूँ सदा मैं अपनी शानें तब्दील
गर नेक दिली से कुछ भलाई की है
देखा तो कहीं नज़र न आया हरगिज़
काठ की हंडिया चढ़ी कब बार बार
आया हूँ मैं जानिब-ए-अदम हस्ती से
ईद-ए-क़ुर्बां है आज ऐ अहल-ए-हमम
इसराफ़ से एहतिराज़ अगर फ़रमाते