एक वक़्त में एक काम
चक्खी भी है तू ने दुर्द-ए-जाम-ए-तौहीद
पन चक्की
अपने ही दिल अपनों का दुखाते हैं बहुत
है शुक्र दुरुस्त और शिकायत ज़ेबा
तारीक है रात और दुनिया ज़ख़्ख़ार
हक़्क़ा कि बुलंद है मक़ाम-ए-अकबर
क़ल्लाश है क़ौम तो पढ़ेगी क्यूँकर
मा'लूम का नाम है निशाँ है न असर
बंदा हूँ तो इक ख़ुदा बनाऊँ अपना
क्या कहते हैं इस में मुफ़्तियान-ए-इस्लाम
अक्सर ने है आख़िरत की खेती बोई