ऐ रौनक़-ए-लाला-ज़ार वापस आ जा
ज़ब्त-ए-गिर्या
औरों को बताऊँ क्या मैं घातें अपनी
हर इल्म ओ यक़ीं है इक गुमाँ ऐ साक़ी
ये बज़्म-गीर अमल है बे-नग़्मा-ओ-सौत
बाक़ी नहीं एक शुऊर रखने वाला
ममनूअ शजर से लुत्फ़-ए-पैहम लेने
कल रात गए ऐन-ए-तरब के हंगाम
दिल की जानिब रुजूअ होता हूँ मैं
क़ानून नहीं कोई फ़ितरत के सिवा
नागिन बन कर मुझे न डसना बादल
आज़ादि-ए-फ़िक्र ओ दर्स-ए-हिकमत है गुनाह