ख़ुदाया जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है
कि जितना खींचता हूँ और खिंचता जाए है मुझ से
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ब-नाला हासिल-ए-दिल-बस्तगी फ़राहम कर
कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब
शोरीदगी के हाथ से है सर वबाल-ए-दोश
ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
आता है दाग़-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद
है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त 'असद'
नज़र लगे न कहीं उन के दस्त-ओ-बाज़ू को
होगा कोई ऐसा भी कि 'ग़ालिब' को न जाने
मौत का एक दिन मुअय्यन है
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
जान दी दी हुई उसी की थी