खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मक्तूब का या रब
क़सम खाई है उस काफ़िर ने काग़ज़ के जलाने की
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हसद से दिल अगर अफ़्सुर्दा है गर्म-ए-तमाशा हो
बर्शिकाल-ए-गिर्या-ए-आशिक़ है देखा चाहिए
हूँ मैं भी तमाशाई-ए-नैरंग-ए-तमन्ना
ख़ुदाया जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है
पूछे है क्या वजूद ओ अदम अहल-ए-शौक़ का
ना-कर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद
शब कि बर्क़-ए-सोज़-ए-दिल से ज़हरा-ए-अब्र आब था
किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
दिया है दिल अगर उस को बशर है क्या कहिए
दोनों जहान दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
चाहिए अच्छों को जितना चाहिए
कह सके कौन कि ये जल्वागरी किस की है