दोनों जहान दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
याँ आ पड़ी ये शर्म कि तकरार क्या करें
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मौत का एक दिन मुअय्यन है
न पूछ नुस्ख़ा-ए-मरहम जराहत-ए-दिल का
दिया है दिल अगर उस को बशर है क्या कहिए
की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
'ग़ालिब' तिरा अहवाल सुना देंगे हम उन को
जहाँ तेरा नक़्श-ए-क़दम देखते हैं
हर-चंद हो मुशाहिदा-ए-हक़ की गुफ़्तुगू
नशा-ए-रंग से है वाशुद-ए-गुल
बस-कि हूँ 'ग़ालिब' असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
ग़म-ए-दुनिया से गर पाई भी फ़ुर्सत सर उठाने की