दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
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ताब लाए ही बनेगी 'ग़ालिब'
ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
मौत का एक दिन मुअय्यन है
फ़र्दा-ओ-दी का तफ़रक़ा यक बार मिट गया
वफ़ा-दारी ब-शर्त-ए-उस्तुवारी अस्ल ईमाँ है
कौन है जो नहीं है हाजत-मंद
ज़ोफ़ में तअना-ए-अग़्यार का शिकवा क्या है
क्यूँ न फ़िरदौस में दोज़ख़ को मिला लें यारब
धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव
'ग़ालिब' छुटी शराब पर अब भी कभी कभी
हम पर जफ़ा से तर्क-ए-वफ़ा का गुमाँ नहीं
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त