वफ़ा-दारी ब-शर्त-ए-उस्तुवारी अस्ल ईमाँ है
मरे बुत-ख़ाने में तो काबे में गाड़ो बिरहमन को
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काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना
क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफ़र 'ग़ालिब'
मरते मरते देखने की आरज़ू रह जाएगी
है ख़याल-ए-हुस्न में हुस्न-ए-अमल का सा ख़याल
मुनहसिर मरने पे हो जिस की उमीद
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
रफ़्तार-ए-उम्र क़त-ए-रह-ए-इज़्तिराब है
सर-गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है
घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
चश्म-ए-ख़ूबाँ ख़ामुशी में भी नवा-पर्दाज़ है
हाँ वो नहीं ख़ुदा-परस्त जाओ वो बेवफ़ा सही
ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद