वा-हसरता कि यार ने खींचा सितम से हाथ
हम को हरीस-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार देख कर
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शाहिद-ए-हस्ती-ए-मुतलक़ की कमर है आलम
रफ़्तार-ए-उम्र क़त-ए-रह-ए-इज़्तिराब है
आज वाँ तेग़ ओ कफ़न बाँधे हुए जाता हूँ मैं
तंगी-ए-दिल का गिला क्या ये वो काफ़िर-दिल है
आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
तग़ाफ़ुल-दोस्त हूँ मेरा दिमाग़-ए-अज्ज़ आली है
बज़्म-ए-शाहंशाह में अशआर का दफ़्तर खुला
आगही दाम-ए-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए
ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
बला से हैं जो ये पेश-ए-नज़र दर-ओ-दीवार
जौर से बाज़ आए पर बाज़ आएँ क्या
सर-गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है