वाइज़ न तुम पियो न किसी को पिला सको
क्या बात है तुम्हारी शराब-ए-तुहूर की
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पिला दे ओक से साक़ी जो हम से नफ़रत है
हद चाहिए सज़ा में उक़ूबत के वास्ते
दोनों जहान दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
ज़िक्र मेरा ब-बदी भी उसे मंज़ूर नहीं
ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब'
बोसा देते नहीं और दिल पे है हर लहज़ा निगाह
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
शिकवे के नाम से बे-मेहर ख़फ़ा होता है
'ग़ालिब' न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
दिल में ज़ौक़-ए-वस्ल ओ याद-ए-यार तक बाक़ी नहीं
है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे